बुधवार, जनवरी 31, 2007

मांडू

हर ओर टूटी इमारतें, खिरती दीवारें और दरकते मचान,
फिर भी मेरा यह शहर अपनी बुलंदियों पर इतराता फिर रहा है ।

महलों को छोड़ बेगमें सड़क पर आ गई हैं,
हरम अब बांदियों और लौंडियों के सहारे ज़िंदा हैं ।

रूपमती के झरोखे से अब नर्मदा नजर नहीं आती,
हरेक की नजर में कुहासा छा गया है ।

मिट गये हैं जामा मस्ज़िद से अजान देने वाले,
अशर्फी महल की आयतें अब दुर्गति पढ़ रही हैं ।

सब कुछ इतिहास, अब वर्तमान खत्म हो चला है,
मेरा ये शहर अब मांडू हो चला है ।