गुरुवार, अक्तूबर 06, 2011

स्टीव जॉब्स की स्मृति में


हे स्वप्नदर्शी,
तुम कहां चल दिये,
उड़ कर,
बिना कुछ कहे.

कहीं ये दिन का अंत तो नहीं,
या तुम्हारा प्रयाण है,
नई सुबह के आगमन से पहले,
विश्राम का समय.

तुमने, आकार दिया,
स्वप्न को जो हम सबने देखा,
रंग दिया, तस्वीर को,
जो कहीं हमारे दिल में छुपी थी,
पंख दिये, आकाश दिया,

स्वप्नदर्शी,
तुम हमारे साथ हो,
तुम्हारी आंखों से ही देखेंगे,
हम रंगों भरी कल की सुबह,
तुम्हें नमन.

रविवार, मई 08, 2011

आज फिर सहर एक शाम लाई है

ये कैसी सहर हुई है आज, कि हर ओर सांझ नज़र आती है,
तन्हा गलियों में पसरी सी पगलाई ये सियाही नज़र आती है.

कल रात सोचा था रोशनी का इंतज़ार करेंगे,
छिटक कर दूर हर बुरे ख्वाब को,
मेहबूबो यार का फिर एहतराम करेंगे.

मगर ये क्या हुआ कि,
आज फिर सूरज रूठ गया,
अपनी रोशनी को समेट,
आज मेरे साये को भी जुदा कर गया.

मुझे तो चलना है आज भी,
सियाह गलियों में,
खस्ता हाल फुटपाथों के पत्थरों को उछालते हुए,
सुना है,
इस गली के मोड़ से जो रास्ता जाता है,
वो रोशनी के चौराहों पर जा मिलता है.