शनिवार, अप्रैल 14, 2007

आज लिखे कुछ नये शब्द तुम्हारे लिये

क्यों न छूटता चलूं मैं
जड़ संवादों की
अंतहीन बेड़ियों से

क्यों न मैं विचरूं मुक्त
सह-सार की खोज में
इंकार के
ऊंचे दरख्तों के पीछे

क्यों न परछाई बन
मैं साथ हो जाऊं,
तु्म्हारी आंखों के सामने
हर क्षण

तुम्हारा अस्तित्व
तु्म्हारा अहसास
अब परे है तुम से

क्योंकि मेरे मन में
तुम्हारी
एक नई परिभाषा
जन्म लेती है हर सांझ

बुधवार, जनवरी 31, 2007

मांडू

हर ओर टूटी इमारतें, खिरती दीवारें और दरकते मचान,
फिर भी मेरा यह शहर अपनी बुलंदियों पर इतराता फिर रहा है ।

महलों को छोड़ बेगमें सड़क पर आ गई हैं,
हरम अब बांदियों और लौंडियों के सहारे ज़िंदा हैं ।

रूपमती के झरोखे से अब नर्मदा नजर नहीं आती,
हरेक की नजर में कुहासा छा गया है ।

मिट गये हैं जामा मस्ज़िद से अजान देने वाले,
अशर्फी महल की आयतें अब दुर्गति पढ़ रही हैं ।

सब कुछ इतिहास, अब वर्तमान खत्म हो चला है,
मेरा ये शहर अब मांडू हो चला है ।