सोमवार, जनवरी 22, 2018

गणतंत्र

हम स्वतंत्र, हम गणतंत्र,
शांति है हमारा मंत्र,

उद्यम के गीत हैं,
आतंक का शोर नहीं,
हो दुश्मन सावधान,
शांत हैं हम,
कमज़ोर नहीं.

मंगलवार, अक्तूबर 31, 2017

हमसफर

चलो कुछ वादे कर लेते हैं,
सफर की शर्तें तय कर लेते हैं,
मुझे झगड़ा पसंद नहीं,
क्योंकि रूठना तो तुम्हें खूब आता है.
मैटिनी में जब साथ पिक्चर देखेंगे,
तो मूंगफली के दाने बराबर से बांटेंगे,
तुम पहले सारे छिलके निकाल लेना,
और दाने अपने दुपट्टे में संभाल लेना.
नंगे पांव समंदर की रेत पर,
जब अपना घर बनाते हुए,
हम सीपियां इकठ्ठी करेंगे,
वो सीपियां तुम रख लेना,
बस शंख शंख मुझे छांटकर दे देना.
चाय की दुकान पर,
अपनी अपनी प्याली अलग लेंगे,
मुझे मालूम है तुम्हें चाय बहुत पसंद है,
पर बिस्किट एक ही लेंगे,
भले ही पहले तुम काट लेना.
तुम वादा करो कि,
चार बजे पक्का आ जाओगी,
क्योंकि मैं जानता हूं,
छह के बाद मैं तुम्हें रोक नहीं पाऊंगा,
और तुम्हारे आने और जाने,
के बीच के ये दो मिनट बहुत जल्दी गुज़र जायेंगे.
तुम वादा करो कि,
अब कभी इंकार नहीं करोगी,
तुम ध्यान रखना,
बहुत थोड़ी जिंदगी बाकी है,
और एक पूरा जीवन जीना बाकी है.
- आनंद 

शनिवार, अक्तूबर 28, 2017

कैनवस

कमरे में पड़ा एक कैनवास,
रेखाओं के अनगढ़ आकार में,
अधबने चित्र को थामे हुए,
जैसे चित्रकार की बाट जोह रहा हो.

बरबस ब्रश हाथ में आ जाता है,
और पैलेट पर निगाह पड़ती है.
मैं तय नहीं कर पा रहा हूं,
ब्रश पर कौन सा रंग उठाऊं.

वो साया बनकर,
चित्र से निकल आती है,
और समा जाती है मेरी बांहों में,

मैं किंकर्तव्यविमूढ़,
एक हाथ से उसका बदन संभाले,
एक हाथ में ब्रश लिये,
खाली कैनवस में क्षितिज को ताकता रहता हूं.

दो कदम

वो जो दो कदम चल कर,
मैंने आवाज़ दी थी,
वो तुम्हारी चाह नहीं,
मेरा समर्पण था.
वो जो मैंने दो शब्द,
तुम्हारे लिये लिखे थे,
वो तुम्हारी खुशामद नहीं,
मेरा सज़दा था.
तुम समझ नहीं पाये,
मेरी खामोश आवाज़,
मैंने तो ज़िंदगी कहा था,
तुमने दिल्लगी समझ लिया.
तुम दो पल,
पीछे मुड़कर देखना,
मैं वहीं खड़ा हूं,
जहां से तुम, बेखबर,
बेरुखी दिखा कर चल दिये थे.
- आनंद

तुम और मैं

तुम,
निश्चल, निर्मल बहती,
एक नदी.
मैं,
अचल, जड़, किनारे पर खड़ा,
तुमको अविरत देखता,
एक कदंब.
तुम,
एक धारा,
लहरों में अठखेलियां करतीं,
जीवन की उर्जा अपने में समेटे हुए.
मैं,
उठती गिरती बूंदों के स्पर्श से,
सराबोर, तुम्हें निहारता हुआ.
जाने कितनी ऋतुएं बीत गईं,
जाने कितने बरस बीत गए.
तुम,
अविरल, अनवरत, अनहद,
इठलाती हुईं मेरे सामने बहती रहती हो.

मैं,
हर भोर की पहली किरण में,
तुम्हारे पहलू में,
अपनी परछाई ढ़ूंढ़ता हूं.

शनिवार, अक्तूबर 20, 2012

सबब

क्यों हर सुबह तुम्हारी याद आ जाती है,
क्यों हर सहर तुम्हारी खुशबू बिखरा जाती है.

मैं जानता ही नहीं क्यों तुम्हारा नाम मेरी मुस्कुराहट बन गया है,
मैं जानता ही नहीं क्यों तुम्हारा होना मेरे होने का सबब बन गया है.

गुरुवार, अक्तूबर 06, 2011

स्टीव जॉब्स की स्मृति में


हे स्वप्नदर्शी,
तुम कहां चल दिये,
उड़ कर,
बिना कुछ कहे.

कहीं ये दिन का अंत तो नहीं,
या तुम्हारा प्रयाण है,
नई सुबह के आगमन से पहले,
विश्राम का समय.

तुमने, आकार दिया,
स्वप्न को जो हम सबने देखा,
रंग दिया, तस्वीर को,
जो कहीं हमारे दिल में छुपी थी,
पंख दिये, आकाश दिया,

स्वप्नदर्शी,
तुम हमारे साथ हो,
तुम्हारी आंखों से ही देखेंगे,
हम रंगों भरी कल की सुबह,
तुम्हें नमन.

रविवार, मई 08, 2011

आज फिर सहर एक शाम लाई है

ये कैसी सहर हुई है आज, कि हर ओर सांझ नज़र आती है,
तन्हा गलियों में पसरी सी पगलाई ये सियाही नज़र आती है.

कल रात सोचा था रोशनी का इंतज़ार करेंगे,
छिटक कर दूर हर बुरे ख्वाब को,
मेहबूबो यार का फिर एहतराम करेंगे.

मगर ये क्या हुआ कि,
आज फिर सूरज रूठ गया,
अपनी रोशनी को समेट,
आज मेरे साये को भी जुदा कर गया.

मुझे तो चलना है आज भी,
सियाह गलियों में,
खस्ता हाल फुटपाथों के पत्थरों को उछालते हुए,
सुना है,
इस गली के मोड़ से जो रास्ता जाता है,
वो रोशनी के चौराहों पर जा मिलता है.

बुधवार, अगस्त 19, 2009

सूरज - बाल कविता - २

मुझसे धरती, मुझसे चंदा,
मुझसे सारी सृष्टि,
मुझसे जल, मुझसे नभ,
सब पर मेरी दृष्टि,
मुझसे सारा जीवन है,
मुझसे सारी खुशियां,
मैं सूरज हूं, मेरे पीछे,
दौड़ रही हैं सदियां

सूरज - बाल कविता


सुबह रोज मैं आता हूं,
तुम सबको दौड़ाता हूं,
शाम को फिर मैं छुप जाऊं,
चंदा को आवाज लगाऊं,
मेरे प्यारे चलते रहना,
सपने सुंदर वुनते रहना.