क्यों न छूटता चलूं मैं
जड़ संवादों की
अंतहीन बेड़ियों से
क्यों न मैं विचरूं मुक्त
सह-सार की खोज में
इंकार के
ऊंचे दरख्तों के पीछे
क्यों न परछाई बन
मैं साथ हो जाऊं,
तु्म्हारी आंखों के सामने
हर क्षण
तुम्हारा अस्तित्व
तु्म्हारा अहसास
अब परे है तुम से
क्योंकि मेरे मन में
तुम्हारी
एक नई परिभाषा
जन्म लेती है हर सांझ