रविवार, मई 08, 2011

आज फिर सहर एक शाम लाई है

ये कैसी सहर हुई है आज, कि हर ओर सांझ नज़र आती है,
तन्हा गलियों में पसरी सी पगलाई ये सियाही नज़र आती है.

कल रात सोचा था रोशनी का इंतज़ार करेंगे,
छिटक कर दूर हर बुरे ख्वाब को,
मेहबूबो यार का फिर एहतराम करेंगे.

मगर ये क्या हुआ कि,
आज फिर सूरज रूठ गया,
अपनी रोशनी को समेट,
आज मेरे साये को भी जुदा कर गया.

मुझे तो चलना है आज भी,
सियाह गलियों में,
खस्ता हाल फुटपाथों के पत्थरों को उछालते हुए,
सुना है,
इस गली के मोड़ से जो रास्ता जाता है,
वो रोशनी के चौराहों पर जा मिलता है.