क्यों न छूटता चलूं मैं
जड़ संवादों की
अंतहीन बेड़ियों से
क्यों न मैं विचरूं मुक्त
सह-सार की खोज में
इंकार के
ऊंचे दरख्तों के पीछे
क्यों न परछाई बन
मैं साथ हो जाऊं,
तु्म्हारी आंखों के सामने
हर क्षण
तुम्हारा अस्तित्व
तु्म्हारा अहसास
अब परे है तुम से
क्योंकि मेरे मन में
तुम्हारी
एक नई परिभाषा
जन्म लेती है हर सांझ
3 टिप्पणियां:
बहुत बढ़िया कविता है. बहुत बधाई.
उम्मीद है नारद पर रजिस्ट्रेशन करवा लिया होगा ताकि सभी हिन्दी चिट्ठाकार आपको पढ़ सकें.
http://narad.akshargram.com/register/
शुभकामनायें.
bhaut bhaut khoob anand ji
har saanjh ek naya roop janam leta hai
har soch main tum kuch alag si hoti ho
aapke ye vichar bhaut achhe lage
जनाब उड़न तश्तरी जी एवं श्रद्धा जी,
ब्लॉग पर आपकी विजिट के लिये साधूवाद,
एक क्रिटिकल अनालिसिस सुधार में मदद करेगा.
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