शुक्रवार, सितंबर 17, 2004

रिश्ते

रिश्ते,
जो तैयार होते हैं,
संबोधन की नींव से,
सामीप्य की दीवारों से ।

हर साथ बिताया पल,
एक उस ईंट की तरह,
जो इमारत की बुनियाद बनती है ।

फिर साथ रहते हुए,
हम इन्हें संभालने की कोशिश करते हैं ।
ये बंट जाते हैं छोटे छोटे बक्सों में,
हरेक अपने प्रकोष्ठ में बंद ।

प्रकोष्ठ,
जिसका एक ही दरवाजा होता है,
भीतर बाहर जाने के लिए ।

रिश्ते जो भवन नजर आते हैं बाहर से,
किंतु भीतर से होते हैं रीते बक्से ।
आओ हम तुम कोशिश करें,
इन बक्सों से बाहर रहने की ।

वह मंजिल तैयार करें,
जहां कोई दीवार न हो.
न प्रकोष्ठ, न दरवाजा,
ताकि किसी रिश्ते के लिए
फिर सांकल न बजानी पड़े ।।

दुआ

हर लम्हा ज़िंदगी का एक कोरा सफहा है,
कूची ख्वाहिशों की लेकर तुम इसमें रंग भर लो ।

लेकर सुबह से सिंदूरी लाल,
आकृति नये जीवन की बनाना ।
फिर ले प्रणयी बासंती पीला,
नित नये तुम स्वप्न सजाना ।

मेहंदी से लेकर हरा रंग,
अपना सुंदर संसार रचाना ।
और ले विराट अम्बर से उसका रंग,
स्वयं को उसके साथ उठाना ।

फिर शुभ्र एक किनारी देकर,
नई उमंग की ज्योत जगाना ।
देना श्याम छोड़ निशा पर,
उसे है केवल हमें निभाना ।

- आनन्द जैन

मंगलवार, सितंबर 07, 2004

बातें, कही अनकही

बातें, कही अनकही
पड़ी रह जाती हैं ।

जैसे सुबह की नर्म दूब पर पड़ी
ओस की बूंदें ।

जब कभी पाँव पड़ जाये
तो गुदगुदी सी होती है ।

या फिर डायरी के पन्नों पर पड़े
स्याही के कुछ छींटे ।

पीले पड़ते पन्नों पर,
चमक कभी नहीं जाती ।

बातें,
बस वही तो रह जाती हैं ।

- आनन्द जैन