रिश्ते,
जो तैयार होते हैं,
संबोधन की नींव से,
सामीप्य की दीवारों से ।
हर साथ बिताया पल,
एक उस ईंट की तरह,
जो इमारत की बुनियाद बनती है ।
फिर साथ रहते हुए,
हम इन्हें संभालने की कोशिश करते हैं ।
ये बंट जाते हैं छोटे छोटे बक्सों में,
हरेक अपने प्रकोष्ठ में बंद ।
प्रकोष्ठ,
जिसका एक ही दरवाजा होता है,
भीतर बाहर जाने के लिए ।
रिश्ते जो भवन नजर आते हैं बाहर से,
किंतु भीतर से होते हैं रीते बक्से ।
आओ हम तुम कोशिश करें,
इन बक्सों से बाहर रहने की ।
वह मंजिल तैयार करें,
जहां कोई दीवार न हो.
न प्रकोष्ठ, न दरवाजा,
ताकि किसी रिश्ते के लिए
फिर सांकल न बजानी पड़े ।।
6 टिप्पणियां:
अगली रचना के लिए सांकल बजानी पड़ेगी?
aapki kvitaon main gahrji hai badhai/
Kavitayin bhut prabhawshali hain. dr.vyom
ये कविता पढने के बाद ओशो कि कुछ पंक्तिया याद आ गयी (अनुवाद में कही भाव ना बदल जाये , इस लिए ज्यो के त्यों उदृत कर रह हू ) - Relationship is ugly, relating is beautiful.
- आशुतोष
gazab...
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