शनिवार, अक्तूबर 28, 2017

कैनवस

कमरे में पड़ा एक कैनवास,
रेखाओं के अनगढ़ आकार में,
अधबने चित्र को थामे हुए,
जैसे चित्रकार की बाट जोह रहा हो.

बरबस ब्रश हाथ में आ जाता है,
और पैलेट पर निगाह पड़ती है.
मैं तय नहीं कर पा रहा हूं,
ब्रश पर कौन सा रंग उठाऊं.

वो साया बनकर,
चित्र से निकल आती है,
और समा जाती है मेरी बांहों में,

मैं किंकर्तव्यविमूढ़,
एक हाथ से उसका बदन संभाले,
एक हाथ में ब्रश लिये,
खाली कैनवस में क्षितिज को ताकता रहता हूं.

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