शनिवार, अक्तूबर 28, 2017

तुम और मैं

तुम,
निश्चल, निर्मल बहती,
एक नदी.
मैं,
अचल, जड़, किनारे पर खड़ा,
तुमको अविरत देखता,
एक कदंब.
तुम,
एक धारा,
लहरों में अठखेलियां करतीं,
जीवन की उर्जा अपने में समेटे हुए.
मैं,
उठती गिरती बूंदों के स्पर्श से,
सराबोर, तुम्हें निहारता हुआ.
जाने कितनी ऋतुएं बीत गईं,
जाने कितने बरस बीत गए.
तुम,
अविरल, अनवरत, अनहद,
इठलाती हुईं मेरे सामने बहती रहती हो.

मैं,
हर भोर की पहली किरण में,
तुम्हारे पहलू में,
अपनी परछाई ढ़ूंढ़ता हूं.

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