क्यों न छूटता चलूं मैं
जड़ संवादों की
अंतहीन बेड़ियों से
क्यों न मैं विचरूं मुक्त
सह-सार की खोज में
इंकार के
ऊंचे दरख्तों के पीछे
क्यों न परछाई बन
मैं साथ हो जाऊं,
तु्म्हारी आंखों के सामने
हर क्षण
तुम्हारा अस्तित्व
तु्म्हारा अहसास
अब परे है तुम से
क्योंकि मेरे मन में
तुम्हारी
एक नई परिभाषा
जन्म लेती है हर सांझ
A collection of poems written by Anand Jain. Diverse thoughts and musings scribbled over last 10 years of my life.
शनिवार, अप्रैल 14, 2007
बुधवार, जनवरी 31, 2007
मांडू
हर ओर टूटी इमारतें, खिरती दीवारें और दरकते मचान,
फिर भी मेरा यह शहर अपनी बुलंदियों पर इतराता फिर रहा है ।
महलों को छोड़ बेगमें सड़क पर आ गई हैं,
हरम अब बांदियों और लौंडियों के सहारे ज़िंदा हैं ।
रूपमती के झरोखे से अब नर्मदा नजर नहीं आती,
हरेक की नजर में कुहासा छा गया है ।
मिट गये हैं जामा मस्ज़िद से अजान देने वाले,
अशर्फी महल की आयतें अब दुर्गति पढ़ रही हैं ।
सब कुछ इतिहास, अब वर्तमान खत्म हो चला है,
मेरा ये शहर अब मांडू हो चला है ।
फिर भी मेरा यह शहर अपनी बुलंदियों पर इतराता फिर रहा है ।
महलों को छोड़ बेगमें सड़क पर आ गई हैं,
हरम अब बांदियों और लौंडियों के सहारे ज़िंदा हैं ।
रूपमती के झरोखे से अब नर्मदा नजर नहीं आती,
हरेक की नजर में कुहासा छा गया है ।
मिट गये हैं जामा मस्ज़िद से अजान देने वाले,
अशर्फी महल की आयतें अब दुर्गति पढ़ रही हैं ।
सब कुछ इतिहास, अब वर्तमान खत्म हो चला है,
मेरा ये शहर अब मांडू हो चला है ।
शुक्रवार, सितंबर 17, 2004
रिश्ते
रिश्ते,
जो तैयार होते हैं,
संबोधन की नींव से,
सामीप्य की दीवारों से ।
हर साथ बिताया पल,
एक उस ईंट की तरह,
जो इमारत की बुनियाद बनती है ।
फिर साथ रहते हुए,
हम इन्हें संभालने की कोशिश करते हैं ।
ये बंट जाते हैं छोटे छोटे बक्सों में,
हरेक अपने प्रकोष्ठ में बंद ।
प्रकोष्ठ,
जिसका एक ही दरवाजा होता है,
भीतर बाहर जाने के लिए ।
रिश्ते जो भवन नजर आते हैं बाहर से,
किंतु भीतर से होते हैं रीते बक्से ।
आओ हम तुम कोशिश करें,
इन बक्सों से बाहर रहने की ।
वह मंजिल तैयार करें,
जहां कोई दीवार न हो.
न प्रकोष्ठ, न दरवाजा,
ताकि किसी रिश्ते के लिए
फिर सांकल न बजानी पड़े ।।
जो तैयार होते हैं,
संबोधन की नींव से,
सामीप्य की दीवारों से ।
हर साथ बिताया पल,
एक उस ईंट की तरह,
जो इमारत की बुनियाद बनती है ।
फिर साथ रहते हुए,
हम इन्हें संभालने की कोशिश करते हैं ।
ये बंट जाते हैं छोटे छोटे बक्सों में,
हरेक अपने प्रकोष्ठ में बंद ।
प्रकोष्ठ,
जिसका एक ही दरवाजा होता है,
भीतर बाहर जाने के लिए ।
रिश्ते जो भवन नजर आते हैं बाहर से,
किंतु भीतर से होते हैं रीते बक्से ।
आओ हम तुम कोशिश करें,
इन बक्सों से बाहर रहने की ।
वह मंजिल तैयार करें,
जहां कोई दीवार न हो.
न प्रकोष्ठ, न दरवाजा,
ताकि किसी रिश्ते के लिए
फिर सांकल न बजानी पड़े ।।
दुआ
हर लम्हा ज़िंदगी का एक कोरा सफहा है,
कूची ख्वाहिशों की लेकर तुम इसमें रंग भर लो ।
लेकर सुबह से सिंदूरी लाल,
आकृति नये जीवन की बनाना ।
फिर ले प्रणयी बासंती पीला,
नित नये तुम स्वप्न सजाना ।
मेहंदी से लेकर हरा रंग,
अपना सुंदर संसार रचाना ।
और ले विराट अम्बर से उसका रंग,
स्वयं को उसके साथ उठाना ।
फिर शुभ्र एक किनारी देकर,
नई उमंग की ज्योत जगाना ।
देना श्याम छोड़ निशा पर,
उसे है केवल हमें निभाना ।
- आनन्द जैन
कूची ख्वाहिशों की लेकर तुम इसमें रंग भर लो ।
लेकर सुबह से सिंदूरी लाल,
आकृति नये जीवन की बनाना ।
फिर ले प्रणयी बासंती पीला,
नित नये तुम स्वप्न सजाना ।
मेहंदी से लेकर हरा रंग,
अपना सुंदर संसार रचाना ।
और ले विराट अम्बर से उसका रंग,
स्वयं को उसके साथ उठाना ।
फिर शुभ्र एक किनारी देकर,
नई उमंग की ज्योत जगाना ।
देना श्याम छोड़ निशा पर,
उसे है केवल हमें निभाना ।
- आनन्द जैन
मंगलवार, सितंबर 07, 2004
बातें, कही अनकही
बातें, कही अनकही
पड़ी रह जाती हैं ।
जैसे सुबह की नर्म दूब पर पड़ी
ओस की बूंदें ।
जब कभी पाँव पड़ जाये
तो गुदगुदी सी होती है ।
या फिर डायरी के पन्नों पर पड़े
स्याही के कुछ छींटे ।
पीले पड़ते पन्नों पर,
चमक कभी नहीं जाती ।
बातें,
बस वही तो रह जाती हैं ।
- आनन्द जैन
पड़ी रह जाती हैं ।
जैसे सुबह की नर्म दूब पर पड़ी
ओस की बूंदें ।
जब कभी पाँव पड़ जाये
तो गुदगुदी सी होती है ।
या फिर डायरी के पन्नों पर पड़े
स्याही के कुछ छींटे ।
पीले पड़ते पन्नों पर,
चमक कभी नहीं जाती ।
बातें,
बस वही तो रह जाती हैं ।
- आनन्द जैन
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